बाजरा भारतीय कृषि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है, जो अपनी सहनशीलता और पोषण गुणों के लिए जाना जाता है। बाजरा के दानो मे, ज्वार से अच्छी गुणवत्ता के पोषक तत्व पाये जाते है। बाजरा प्रजनन में हाल ही में हुई प्रगति ने उच्च उपज और रोग प्रतिरोधक किस्मों के विकास को संभव बनाया है, जिससे किसानों के लिए बेहतर उत्पादन और लाभ सुनिश्चित हो सके।
वर्षा प्रारंभ होते ही जुलाई के दूसरे सप्ताह तक बाजरा की खेती की जाती है। विभिन्न क्षेत्रों और खेती की स्थितियों के हिसाब से ये नई बाजरा किस्मों को विकसित किया गया है।
मोती बाजरा – एमएच 2417 (पुसा-1801) बाजरा की एक उन्नत वेरायटी है। बाजरा की इस खास किस्म को आईसीएआर– भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है। मोती बाजरा एक द्वि-उद्देश्यीय संकर किस्म है। यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में सिंचित और वर्षा-आधारित दोनों स्थितियों के तहत खरीफ की खेती के लिए उपयुक्त है। इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 33.34 क्विंटल अनाज की उच्च उपज और 175 क्विंटल सूखी चारे की उपज प्राप्त होती है। इसमें उच्च लौह और जस्ता की मात्रा पाई जाती है। इसके अलावा, यह बाजरा की पांच प्रमुख बीमारियों – डाउनी मिल्ड्यू, पर्णकुंचन, रस्ट, स्मट और एरगट के प्रति प्रतिरोधक है।
वीएल मांडुआ-402, एक मुक्त-परागण किस्म है, जिसे आईसीएआर विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा, उत्तराखंड द्वारा विकसित किया गया है। यह किस्म उत्तराखंड में वर्षा आधारित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। इसकी औसत बीज उपज 2,261 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है और यह 111 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। वीएल मांडुआ-402 की कैल्शियम सामग्री (368 मिग्रा/100 ग्राम) इसकी तुलना वाली किस्मों वीएल मांडुआ 324 (294 मिग्रा/100 ग्राम) और वीएल 376 (318.9 मिग्रा/100 ग्राम) की तुलना में अधिक है।
बाजरा की इस वेरायटी को आईसीएआर-एआईसीआरपी ऑन ज्वार और छोटे बाजरा, कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, धारवाड़, कर्नाटक द्वारा विकसित सीपीआरएमवी-1 छोटा बाजरा की एक मुक्त-परागण किस्म है। यह कर्नाटक और तमिलनाडु में वर्षा आधारित खरीफ खेती के लिए उपयुक्त है। इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 24-26 क्विंटल उपज प्राप्त होती है और यह 70-74 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। यह किस्म ब्राउन स्पॉट, पर्णकुंचन और पर्ण झुलसा रोग के प्रति प्रतिरोधक है।
वीएल मडिरा-254 सांवा बाजरा की एक मुक्त-परागण किस्म है जिसे आईसीएआर विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा, उत्तराखंड द्वारा विकसित किया गया है। यह उत्तराखंड में वर्षा आधारित स्थितियों के लिए उपयुक्त है। इस किस्म से प्रति हेक्टेयर औसत 1,719 किलोग्राम उपज प्राप्त होती है और यह 101 दिनों में पक जाती है।