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भूजल संकट से बचने के लिए साठा धान पर रोक जरूरी, जानें क्यों

साठा धान की खेती
साठा धान की खेती

देश के कई राज्यों में प्रतिबंध के बावजूद साठा धान की फसल चोरी-छिपे लगाई जा रही है। मात्र 60 दिनों में तैयार होने वाली यह फसल जहां किसानों के लिए अधिक मुनाफे का साधन बनी हुई है, वहीं यह भूजल स्तर के लिए घातक साबित हो रही है।

मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, पंजाब और अब उत्तर प्रदेश में भी इस पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। इसके बावजूद तराई क्षेत्रों में किसान इसे गैरकानूनी रूप से उगा रहे हैं। सरकार द्वारा गठित टास्क फोर्स इन संवेदनशील इलाकों में नजर बनाए हुए है। साठा धान की खेती पर हर्जाना और कानूनी कार्रवाई का भी प्रावधान है।

वैज्ञानिक रिपोर्ट में हुआ खुलासा:

कई राज्यों ने इस फसल के दुष्प्रभावों को लेकर केंद्र सरकार के माध्यम से वैज्ञानिकों से राय ली। कृषि प्रयोगशालाओं में साठा धान के नमूनों की जांच की गई, जिसमें यह स्पष्ट हुआ कि यह फसल जमीन की नमी और भूजल को अत्यधिक मात्रा में खींचती है। इसी आधार पर राज्यों ने इसके खिलाफ सख्त कदम उठाए।

पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा:

साठा धान की खेती से न केवल भूजल स्तर गिर रहा है बल्कि कई इलाकों में ज़मीन बंजर भी हो चुकी है। पर्यावरणविदों ने सरकार के इस प्रतिबंध की सराहना की है, क्योंकि वे लंबे समय से इसकी मांग कर रहे थे। तराई क्षेत्र को "चावल का कटोरा" कहा जाता है, परंतु यह उपजाऊ ज़मीन अब संकट में है। केंद्रीय जल संरक्षण योजनाओं पर भी यह फसल प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है।

लालच बन रहा है जल संकट की वजह: साठा धान की खेती किसानों को पारंपरिक फसलों के मुकाबले दोगुना लाभ देती है, परंतु इसका असंतुलित जल दोहन भविष्य के लिए खतरा बनता जा रहा है। कनाडा जैसे देशों में इसे पहले उगाया जाता था, लेकिन अब वहां पूरी तरह प्रतिबंधित है। उत्तराखंड सहित नेपाल से सटे हजारों हेक्टेयर में फैले तराई क्षेत्र में भूजल स्तर देश के अन्य हिस्सों की तुलना में कम गहराई पर है, जिससे यह क्षेत्र साठा धान के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया है। केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट बताती है कि इस क्षेत्र का जलस्तर पहले की तुलना में काफी गिर चुका है। चैनी धान जैसे फसलों के कारण मिट्टी और पानी के संतुलन में भारी गड़बड़ी आई है।

 

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