By khetivyapar
पोस्टेड: 27 Jan, 2024 12:00 PM IST Updated Thu, 26 Sep 2024 04:00 AM IST
सूरजमुखी एक नई शुरू की गई तिलहनी फसल है, लेकिन इसे प्राचीन काल से भारत में सजावटी पौधे के रूप में उगाया जाता रहा है। यह प्रति इकाई क्षेत्र और प्रति इकाई समय में बड़ी मात्रा में उच्च गुणवत्ता वाला तेल दे सकता है। खेती किया जाने वाला सूरजमुखी एक सामान्य सूरजमुखी है और दक्षिणी संयुक्त राज्य अमेरिका का मूल निवासी है। सूरजमुखी का आर्थिक महत्व तिलहन या चारे की फसल के रूप में इसकी उपयोगिता के कारण है। सूरजमुखी की फसल भारत में 1965 में शुरू की गई थी और व्यापार और वनस्पति निर्माता संघ के कुछ अनुमानों के अनुसार, सूरजमुखी भारत में 1975-76 के दौरान 3,88,000 हेक्टेयर भूमि पर एक वाणिज्यिक फसल के रूप में उगाया गया था। वनस्पति तेलों (वनस्पति घी) में आत्मनिर्भरता की दिशा में
सूरजमुखी एक नए तिलहन के रूप में उभर रहा है।
मध्यप्रदेश की जलवायु एवं भूमि सूर्यमुखी की खेती के लिए उपयुक्त है। सूर्यमुखी के बीज में 42 - 48 प्रतिशत खाद्य तेल होता है। इसका तेल उच्च रक्तचाप एवं हृदय रोगियों के लिए लाभकारी है। सूरजमुखी दिन भर सूरज के साथ घूमता रहता है। इसका फूल सदैव सूर्य के फूल की ओर ही रहता है। ये फूल सूर्योदय के समय खिलते हैं और सूर्यास्त के समय बंद हो जाते हैं। इसके पौधे गाँवों के आसपास जल भूमि में, बगीचों में, सड़क के किनारे तथा जुते हुए खेतों में भी उगते हैं। बैंगनी रंग के फूल वाले पौधे विशेषकर बिहार, उड़ीसा से लेकर गुजरात और दक्षिणी भारत में पाए जाते हैं।
भूमि की तैयारी तथा बोने का उपयुक्त समय Land preparation and appropriate time for sowing:
ये फसलें प्राय हर एक प्रकार की भूमि में पैदा की जा सकती है। जिस भूमि में अन्य कोई धान्य फसल उगाना संभव नही होता वहां भी ये फसलें सफलता पूर्वक उगाई जा सकती हैं। उतार-चढाव वाली, कम जल धारण क्षमता वाली, उथली सतह वाली आदि कमजोर किस्म में ये फसलें अधिकतर उगाई जा रही है। हल्की भूमि में जिसमें पानी का निकास अच्छा हो इनकी खेती के लिये उपयुक्त होती है। भूमि की तैयारी के लिये गर्मी की जुताई करें एवं वर्षा होने पर पुनः खेत की जुताई करें या बखर चलायें जिससे मिट्टी अच्छी तरह से भुरभुरी हो जावें। सिंचित क्षेत्रों से खरीफ फसल, की कटाई के बाद अक्टूबर माह के मध्य से नवम्बर माह के अंत तक बोनी करना चाहिए। देर से बोनी करने में अंकुरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सूरजमुखी की बोनी वर्षा समाप्त होते ही सितंबर माह के प्रथ्म सप्ताह से आखरी सप्ताह तक कर देना चाहिए।
सूरजमुखी की उपयुक्त किस्में Suitable Varieties of Sunflower:
- ज्वालामुखी - यह किस्म 85-90 दिन में तैयार हो जाती है, और इसकी अनुमानित उत्पादन 30-35 क्वि./हे. है। तेल की मात्रा 42-44 प्रतिशत होती है। पौधे की ऊंचाई 160-170 से.मी. होती है।
- सूर्या - यह किस्म 90-100 दिन में तैयार हो जाती है, और इसकी अनुमानित उत्पादन 8-10 क्वि./हे. है। पौधे की ऊंचाई लगभग 130-135 से.मी. तक होती है। तेल की मात्रा 38-40 प्रतिशत होती है।
- बी.एस.एच.-1- यह किस्म 90-90 दिन में तैयार हो जाती है, और इसकी अनुमानित उत्पादन 10-15 क्वि./हे. है। पौधे की ऊंचाई लगभग 130-150 से.मी. तक होती है। तेल की मात्रा 41 प्रतिशत होती है।
सूरजमुखी का उपयोग:
- सूरजमुखी में तेल का प्रतिशत अन्य तिलहन फसल की तुलना में अधिक (45-50%) होता है। सूरजमुखी का तेल पॉली अनसैचुरेटेड फैटी एसिड से भरपूर होता है और परिष्कृत होने पर इसमें एक सुखद स्वाद, उत्कृष्ट रखने की गुणवत्ता होती है। उच्च प्रोटीन (40-44%) और संतुलित अमीनो एसिड के कारण सूरजमुखी के उच्च गुणवत्ता वाले मवेशियों और मुर्गीपालन का चारा बनता है। आटे के चरण में काटी गई सूरजमुखी एक उत्कृष्ट गुणवत्ता वाला चारा बनाती है, विशेष रूप से दुधारू मवेशियों के लिए।
सूरजमुखी का औषधीय महत्व:
- सूरजमुखी मुख्य कार्य कफ और वात को शांत करना है। इसके पूरे पौधे में अल्कोहलिक अर्क होता है जिसमें कैंसर रोधी गुण होते हैं। इसके पत्तों के रस में इसके बीजों को पीसकर माथे पर 2-3 दिन तक लेप लगाएं। इससे माइग्रेन का दर्द पूरी तरह ठीक हो जाता है। कान में दर्द और कान से कान बहने पर इसके गूदे और रस से औषधीय तेल बनाएं और इस तेल की बूंदें कानों में डालें। यह कान के दर्द को ठीक करने में कारगर है।
- इससे गैस्ट्रिक समस्या के कारण होने वाली बवासीर ठीक हो जाती है। अनुशंसित भोजन: केवल घी, खिचड़ी और छाछ दें। इसकी जड़ को गाय के दूध में पीसकर रोगी को पिलायें। यह शरीर से पथरी को बाहर निकालने में मदद करता है। इसके पत्तों को फोड़ों पर बांधें। इससे सूजन दूर हो जाती है। यह कृमिनाशक है और विशेषकर केंचुओं को नष्ट कर देता है। इसके पत्तों का काढ़ा बना लें इससे बुखार ठीक हो जाता है।
सूरजमुखी के रोग तथा प्रबंधन:
- फूल गलन (हैटराट) रोग यह इस फसल की प्रमुख बीमारी है। आरम्भ में फूल के पिछले भाग पर डंडी के पास हल्के भूरे रंग का धब्बा बनता है। एम - 45 या कापरऑक्सिक्लोराइड 1250 – 1500 ग्राम फूल आने पर 15 दिन के अंतराल में छिड़काव करें।
- जड़ तथा तना गलन- यह बीमारी फसल में किसी भी अवस्था पर आ सकती है, परन्तु फूलों में दाने बनते समय अधिक आती है। रोग ग्रस्त पौधों की जड़ें गली तथा नर्म हो जाती है। ऐसे पौधे कभी-कभी जमीन के पास से टूट कर गिर जाते हैं। थाइरम या केप्टान 3 ग्रा./किग्रा बीज बीजोपचार करें व इस रोग से बचाव के लिए भूमि में समुचित मात्रा में नमी रखें।