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केला एक ऐसा फल है जिसे पूरी दुनिया में लोग पसंद करते हैं। देश में भी केले की खेती काफी ज्यादा होती है। किसान केले की खेती से अच्छा मुनाफा कमा पाते हैं। लेकिन इसके लिए दो बातें जरूरी होती हैं। पहली कि केले में कोई रोग ना लगे और दूसरी कि किसानों को अच्छी कीमत मिले। ऐसे में किसान केले के पौधे को रोगों से बचाने के हर संभव प्रयास करते हैं। ऐसा ही एक रोग है पनामा। अगर यह केले के पौधे में लग जाए तो यह पौधे को पूरे तौर पर नष्ट कर देता है। आइए जानते हैं इसके बारे में...
कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार दुनियाभर में 99 प्रतिशत केलों की फसल में टीआर-4 (ट्रॉपिकल रेस-4) फंगस का खतरा मंडरा रहा है। जानकारी के अनुसार अभी तक 20 से अधिक देशों में यह रोग फैल चुका है। इस रोग से केले की बागवानी पूरी तरह से चौपट हो जाती है और किसानों को भारी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ता है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि यह रोग, लक्षण दिखने से पहले ही पौधे में फैल जाता है। इस रोग में केले के पत्ते हरे रंग के मुकाबले अधिक पीले और किनारे काले पड़ जाते हैं। तना सड़ने लगता है और इस तरह पूरी फसल चौपट हो जाती है। इससे किसानों को काफी नुकसान हो जाता है।
पनामा रोग से ग्रसित केले के पौधों का विकास रुक जाता है। इस रोग के लक्षणों की बात करें तो केले के पौधे की पत्तियां भूरी होकर गिर जाती हैं और तना भी सड़ने लगता है। यह एक बहुत ही घातक बीमारी मानी जाती है, जो केले की पूरी फसल को बर्बाद कर देती है। इस बीमारी का कारक फ्यूजेरियम नामक फंगस 30-40 साल तक मिट्टी में जीवित रह सकता है।
1950 के दशक में पहली बार केले के पौधे, में लगने वाले इस रोग का पता चला था। इसे सबसे खराब वनस्पति महामारियों में से एक माना गया है। पिछले दशक के दौरान इस महामारी में अचानक तेजी आ गई है। इसका विस्तार एशिया से ऑस्ट्रेलिया, मध्य-पूर्व, अफ्रीका और वर्तमान में लैटिन अमेरिका तक हो चुका है। इससे दुनिया भर के किसान परेशान हैं।
वैज्ञानिकों को मिली सफलता: ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने आनुवंशिक रूप से संशोधित 'कैवेंडिश केले' को विकसित किया है। केले की यह किस्म टीआर-4 फंगस की प्रतिरोधी है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के लखनऊ स्थित बागवानी अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने फयुजीकोंट नामक जैविक फंगस का विकास किया है और यह इस फंगस को रोकने में सक्षम है।