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तरबूज की खेती प्राचीन समय से होती आ रही है। यह देश के उत्तरी- पश्चिमी शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, गुजरात में रेतीले टीलों पर बाजरा, ग्वार, मोठ, तिल आदि वर्षा आधारित खेती की पद्धतियों में मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है। तरबूज की खेती वर्षा एवं ग्रीष्मकालीन फसल के रूप में की जाती है। इसमें सूखा सहन करने की क्षमता है तथा अधिक तापमान एवं कठोर जलवायु वाली परिस्थितियाँ होने पर भी फल व बीज की अच्छी उपज देता है और आर्थिक दृष्टि से लाभकारी फसल की मान्यता मिली है।
तरबूज मौसमी व बेलवाला पौधा है जिसे वैज्ञानिक भाषा में सिटुलस लेनेटस, मतसूम एवं नकाई के नाम से जाना जाता है। भारत में इसकी खेती उत्तरी गंगा, यमुना, मध्य की चम्बल, बनास, माही, नर्मदा तथा दक्षिण की पेनार, कावेरी, कृष्णा एवं गोदावरी नदियों के पाटों तथा इनकी सहायक नदियों में अधिकतर की जाती है। इसकी खेती मिश्रित फसल के रूप में व्यापक स्तर पर की जाती है साथ ही सिंचाई के संसाधनों के विकास से इसकी खेती गीष्मकालीन फसल के रूप में की जाने लगी है।
तरबूज की फसल के लिये गर्म व शुष्क जलवायु उपयुक्त है। यह सितम्बर-अक्टूबर के महीने में तापमान 35-40 डिग्री सें. वर्षाकालीन फसल के रूप में खेती की जाती है। तथा मई-जून के महीने में 45 डिग्री से. के ऊपर फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है। पौधों में अच्छी बढ़वार के लिय 30-35 डिग्री सेल्सियस तापमान सर्वोत्तम है।
अच्छी खेती के लिये अच्छी जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी एवं मरूस्थलीय रेतीली मिटटी उपयुक्त होती है। मिट्टी का पी.एच. मान 6.0 से 8.5 के बीच सर्वोत्तम उपयुक्त है। तेज आंधी-तूफान में खेत की ऊपरी उपजाऊ मिट्टी एक स्थान से उड़कर दूसरे स्थान पर जम जाने से खेत की उर्वरा शक्ति कमजोर हो जाती है।
तरबूज की खेती वर्षा आधारित मिश्रित खेती तथा ग्रीष्म ऋतु में बाड़ी विधि अपनाकर की जाती है। इसकी खेती जच्छी जलवायु वाले प्रदेशों में नदियों के पाटों अथवा समतल खेतों में की जाती है। वर्षा ऋतु समाप्त होने के बाद छोट-छोटे खेत बनाकर उनमें छोटे-बड़े कुण्ड व मेड़ बनाकर तैयार किया जाते हैं और दिसम्बर माह मे मिश्रित फसल के रूप में तरबूज की बुवाई की जाती है। सिंचाई प्रबंधन एवं अच्छी जीवांष खाद वाले समतल खेत का चुनाव करना चाहिए। फरवरी के पहले सप्ताह में खेत को दो बार हैरो से जुताई कर पाटा लगाकर बुवाई हेतु तैयार कर देना चाहिए। खेत की अंतिम जुताई के पहले 200-250 क्विंटल/ प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की सड़ी खाद डालें। इस तरह तैयार खेत में क्यारी, कुण्ड, नाली या बूंद-बूंद विधि अपनाकर फसल उत्पादन करना चाहिए।
तरबूज की बुवाई वर्षा प्रारंभ होने साथ मध्य जून से लेकर जुलाई के अन्त तक कर सकते हैं। सिंचाई सुविधा होने पर 15 फरवरी से 15 मार्च तक और वर्षा ऋतु की फसल के लिये 15 जून से 15 जुलाई तक बुवाई कर देनी चाहिए। अप्रैल से अक्टूबर तक बाजार में फलों की उपलब्धता बनायी रखी जा सकती है।
तरबूज की बुवाई के लिये खेत में पर्याप्त मात्रा में पौधों की संख्या का होना आवयश्क है। कुण्ड, नाली या क्यारी विधि से बुवाई करने पर 2.5 से 4.0 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त है। बुवाई के 18-21 दिनों बाद जब उनमें 2-4 पत्तियाँ आ जाये तब प्रत्येक बुवाई की जगह पर 1 या 2 स्वस्थ पौधे रखकर शेष निकाल देने चाहिए।
तरबूज फसल की अच्छी उपज के लिये रेतीले व बालू मिट्टी वाले खेतों में मृदा की उर्वरा शक्ति बनाए रखने के लिये प्रति वर्ष 200-250 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद या 5-6 टेªक्टर-ट्राली भेड़-बकरियों की मींगनी की खाद प्रति हेक्टेयर दें। 80 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40-50 किलोग्राम फास्फोरस व पोटास उर्वरक के रूप में प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए।
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