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Watermelon Cultivation in Hindi: किसान भाई फरवरी में करें तरबूज की खेती, और कमाएं अच्छा मुनाफा, जाने पूरी जानकारी

तरबूज की खेती
तरबूज की खेती

तरबूज की खेती प्राचीन समय से होती आ रही है। यह देश के उत्तरी- पश्चिमी शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, गुजरात में रेतीले टीलों पर बाजरा, ग्वार, मोठ, तिल आदि वर्षा आधारित खेती की पद्धतियों में मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है। तरबूज की खेती वर्षा एवं ग्रीष्मकालीन फसल के रूप में की जाती है। इसमें सूखा सहन करने की क्षमता है तथा अधिक तापमान एवं कठोर जलवायु वाली परिस्थितियाँ होने पर भी फल व बीज की अच्छी उपज देता है और आर्थिक दृष्टि से लाभकारी फसल की मान्यता मिली है।

तरबूज मौसमी व बेलवाला पौधा है जिसे वैज्ञानिक भाषा में सिटुलस लेनेटस, मतसूम एवं नकाई के नाम से जाना जाता है। भारत में इसकी खेती उत्तरी गंगा, यमुना, मध्य की चम्बल, बनास, माही, नर्मदा तथा दक्षिण की पेनार, कावेरी, कृष्णा एवं गोदावरी नदियों के पाटों तथा इनकी सहायक नदियों में अधिकतर की जाती है। इसकी खेती मिश्रित फसल के रूप में व्यापक स्तर पर की जाती है साथ ही सिंचाई के संसाधनों के विकास से इसकी खेती गीष्मकालीन फसल के रूप में की जाने लगी है। 

तरबूज की उन्नत किस्में Improved varieties of watermelon:

  1. एएचडब्ल्यू-65- यह किस्म अच्छी गुणवत्ता और अधिक उत्पादन देने वाली किस्म है। फल गोल व हल्के हरे रंग की धारियों युक्त होते हैं। जिसका  औसतन भार 2.5-3.0 किलोग्राम होता है। एक बेल पर 3-4 फल तथा 400 क्विंटल/हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।
  2. एएचडब्ल्यू आरएसएस-1- यह किस्म के फल बडे़ व छिलका हरा एवं बिना धारियों वाला होता है। एक पौधे पर औसतन 3.0 फल मिलने से 23.0 किलोग्राम तक उपज प्राप्त हो जाती है। औसतन 7 किग्रा. भार, लम्बाई 32 सेमी होती है।
  3. थार माणक - यह किस्म एएचडब्ल्यू-19 तरबूज की किस्म शुगर बेबी में चयन प्रक्रिया द्वारा विकसित किया गया है। पके फलों की तुड़ाई बुवाई के 75 दिन बाद प्रारंभ हो जाती है। एक पेड पर 2.6 से 4.2 तक पके फल प्राप्त होते हैं तथा 10-14 किलोग्राम उपज प्राप्त होती है।

तरबूज की फसल में आवयश्क जलवायु Necessary climate in watermelon crop:

तरबूज की फसल के लिये गर्म व शुष्क जलवायु उपयुक्त है। यह सितम्बर-अक्टूबर के महीने में तापमान 35-40 डिग्री सें. वर्षाकालीन फसल के रूप  में खेती की जाती है। तथा मई-जून के महीने में 45 डिग्री से. के ऊपर फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है। पौधों में अच्छी बढ़वार के लिय 30-35 डिग्री सेल्सियस तापमान सर्वोत्तम है।
अच्छी खेती के लिये अच्छी जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी एवं मरूस्थलीय रेतीली मिटटी उपयुक्त होती है। मिट्टी का पी.एच. मान 6.0 से 8.5 के बीच सर्वोत्तम उपयुक्त है। तेज आंधी-तूफान में खेत की ऊपरी उपजाऊ मिट्टी एक स्थान से उड़कर दूसरे स्थान पर जम जाने से खेत की उर्वरा शक्ति कमजोर हो जाती है।

तरबूज की खेती कैसे करें How to watermelon cultivation:

तरबूज की खेती वर्षा आधारित मिश्रित खेती तथा ग्रीष्म ऋतु में बाड़ी विधि अपनाकर की जाती है। इसकी खेती जच्छी जलवायु वाले प्रदेशों में नदियों के पाटों अथवा समतल खेतों में की जाती है। वर्षा ऋतु समाप्त होने के बाद छोट-छोटे खेत बनाकर उनमें छोटे-बड़े कुण्ड व मेड़ बनाकर तैयार किया जाते हैं और दिसम्बर माह मे मिश्रित फसल के रूप में तरबूज की बुवाई की जाती है। सिंचाई प्रबंधन एवं अच्छी जीवांष खाद वाले समतल खेत का चुनाव करना चाहिए। फरवरी के पहले सप्ताह में खेत को दो बार हैरो से जुताई कर पाटा लगाकर बुवाई हेतु तैयार कर देना चाहिए। खेत की अंतिम जुताई के पहले 200-250 क्विंटल/ प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की सड़ी खाद डालें। इस तरह तैयार खेत में क्यारी, कुण्ड, नाली या बूंद-बूंद विधि अपनाकर फसल उत्पादन करना चाहिए।

बुवाई का समय, बीज की मात्रा तथा खाद उर्वरक:

तरबूज की बुवाई वर्षा प्रारंभ होने साथ मध्य जून से लेकर जुलाई के अन्त तक कर सकते हैं। सिंचाई सुविधा होने पर 15 फरवरी से 15 मार्च तक और वर्षा ऋतु की फसल के लिये 15 जून से 15 जुलाई तक बुवाई कर देनी चाहिए। अप्रैल से अक्टूबर तक बाजार में फलों की उपलब्धता बनायी रखी जा सकती है।
तरबूज की बुवाई के लिये खेत में पर्याप्त मात्रा में पौधों की संख्या का होना आवयश्क है। कुण्ड, नाली या क्यारी विधि से बुवाई करने पर 2.5 से 4.0 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त है। बुवाई के 18-21 दिनों बाद जब उनमें 2-4 पत्तियाँ आ जाये तब प्रत्येक बुवाई की जगह पर 1 या 2 स्वस्थ पौधे रखकर शेष निकाल देने चाहिए।
तरबूज फसल की अच्छी उपज के लिये रेतीले व बालू मिट्टी वाले खेतों में मृदा की उर्वरा शक्ति बनाए रखने के लिये प्रति वर्ष 200-250 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद या 5-6 टेªक्टर-ट्राली भेड़-बकरियों की मींगनी की खाद प्रति हेक्टेयर दें। 80 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40-50 किलोग्राम फास्फोरस व पोटास उर्वरक के रूप में प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए।

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प्रमुख कीट एवं नियंत्रण:

  1. ऐपीलेकना भृंग- यह कीट वयस्क एवं भृंग पौधों को क्षति पहुंचाते हैं। भृंग हल्का पीलापन लिए हुए एवं छोटे आकार के होते हैं। जो बीज अंकुरण के बाद से ही इनका प्रकोप दिखाई देने लगता है। यह पत्तियों के नीचे चिपके रहते हैं और सुखाकर जाला सा बना देते हैं।
  2. फल मक्खी- यह अण्डों से निकली इल्लियाँ फल के गूदे को खती हैं। फल मक्खी के अधिक प्रकोप से कई बार 80-90 प्रतिशत तक फल क्षतिग्रस्त हो जाते हैं जिससे उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 
  3. चेपा, हरा, तेला, मायला या वर्ण जीव- ये छो-छोटे हल्केक काले रंग के कीट होते हैं जो पौधो का रस चूसते हैं। ये कीट लसलसा पदार्थ छोडते हैं जिससे पत्तियों व शाखाओं पर काला मल जम जाता है एवं फसल पूरी तरह नष्ट हो जाती है।

नियंत्रण:

  1. सब्जियों की सघन खेत वाले क्षेत्र में उचित फसल चक्र अपनाएं। खेत के आस-पास की जमीन साफ व खरपतवारों से मुक्त रखें। 
  2. फल मक्खी नियंत्रण के लिये फल व फल बनने की प्रारम्भिक अवस्था के समय मेलानियान 50 ई.सी. या डाईमिथोएट 30 ई.सी. एक मिलीलीटर दवा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
  3. भृंगो का प्रकोप ज्यादा होने पर 5 प्रतिशत मेलाथियान या कार्बेरिल अथवा 2 प्रतिशत मेलाथियान चूर्ण की 25 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से पौधों पर सुबह के समय भुरकाव करें।

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