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आंवला एक बहुत उपयोगी प्राचीन फल है जिसके फल पोषक एवं गुणों से भरपूर है। आंवले की खेती सम्पूर्ण भारतवर्ष में की जाती है। सूखे एवं अनुपजाऊ क्षेत्रों में इसकी अच्छी खेती की जा सकती है। इसके गुणों का वर्णन रामायण, कादम्बरी, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता इत्यादि अनेक ग्रन्थों में देखने को मिलता है। इसके कई औषधीय और धार्मिक महत्व है। आंवले को नियमित खाने से शरीर स्वस्थ्य और इसके फलों का त्रिफला चूर्ण एवं चवनप्रास आदि आयुर्वेदिक औषधियाँ बनाने के लिये उपयोग किया जाता है। कार्तिक माह में आंवले के वृक्ष की पूजा तथा इसकी छाया में भोजन करना शुभ माना जाता है।
आंवले में प्रचुर मात्रा में विटामिन सी पाया जाता है, जो स्कर्वी, दांत, एवं मसूड़ों, हड्डी, आंख व उदर के अनुक रोगों में उसके फल काफी लाभदायक होते हैं। इसके वृक्ष उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र व तमिलनाडु में इसकी खेती की अधिक सम्भावनाएं हैं। आंवले के फलों से अचार, मुरब्बा, चटनी, केश तेल, शैम्पू व अनेक आयुर्वेदिक औषधियां व्यावसायिक तौर पर बनाई जाती है।
आंवले को बाग में लगाने से पहले चारों तरफ वायुरोधक पेड़ों को कतार में उत्पादन किया जा सकता है। इसके लिये शीशम, नीम, अरडू आदि की एक या दो पंक्तियों में लगानी चाहिए। पौधों को एक या दो कतारें लगा कर गर्मी में तेज व गर्म हवा से बचा सकते हैं तथा सर्दियों में पाले से होने वाले नुकसान को कम कर सकते हैं। बाग में पौधे लगाने के लिये 8x8 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिए। पौध रोपण के लिये वर्षा ऋतु से पूर्व 1x1 मीटर आकार के गढ्ढे तैयार करके ऊपरी भाग की मिट्टी तथा सड़ी खाद 1:1 अनुपात में मिश्रण से भर देते हैं। खड्डे को जमीन की सतह से 10 सेमी. ऊपर भरकर सिंचाई करना चाहिए। पौध रोपण के लिये जुलाई-अगस्त का समय सबसे अच्छा होता है। फरवरी-अक्टूबर में भी पौध रोपित किया जा सकता है।
बीज बोने के लिये भूमि की सतह पर 15-20 सेमी. ऊंची क्यारी बनाते हैं। पौधे को एक माह बाद क्यारियों में 20x20 सेमी. पर लगा देते हैं। पालीथीन की नलियों में 30x12 सेमी. में खाद चिकनी मिट्टी व बालू भरकर तैयार किये जाते हैं। फरवरी-मार्च में बीज बो देते हैं जो 5-7 दिन में अंकुरित हो जाते हैं। कलिकायन जुलाई से सितम्बर माह तक किया जा सकता है। ग्राफ्टिंग विधि के द्वारा भी आंवले के पौधे तैयार किया जाते हैं।
आंवले की बागवानी के लिये गर्म एवं शुष्क जलवायु उपयुक्त है। आंवला समुद्रतल से 1800 मीटर की ऊँचाई तक के स्थानों पर आसानी से उगाया जा सकता है। ठण्ड के समय पौधों की पत्तियां गिर जाती हैं। असिंचित क्षेत्रों में इसकी खेती नहीं की जाती है। इसके लिये अच्छी जल निकास वाली गहरी बलुई-दोमट मिट्टी में भी इसकी खेती आसानी से की जा सकती है। बंजर परती भूमि में भी इसका उत्पादन किया जा सकता है। चूने वाली भूमि आवंले के लिये अच्छी नहीं है।
आंवले के पौधे को लगाने के 1 माह तक 3-4 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। आंवले में बसंत ऋतु मार्च-अप्रैल में फूल आते हैं, तथा भ्रूण के विकास के लिये सिंचाई की अधिक आवष्यकता होती है। हल्की रेतीली भूमि में मार्च से जुलाई तक 10-15 दिन के अंदर सिंचाई करनी चाहिए। वर्षा न होने पर 2-3 सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। सर्दी में या पाले कि स्थिति में बगीचों में लगे आंवले के पौधों में एक या दो सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। पौधों की थालों में निराई-गुड़ाई करना चाहिए। इससे भूमि की सतह पर जीम मिट्टी की कठोर परत टूट जाती है और पौधों का विकास अच्छा होता है। पौधों के थालों में काली पालीथीन धान के पुवाल व अनुपयोगी घास-फूस की पलवार बिछाकर भी नमी को कम कर सकते हैं।
खाद एवं उर्वरक: आंवले के लिये प्रति वर्ष खाद एवं उर्वरक की मात्रा मृदा परीक्षण के बाद ही निर्धारित की जाती है। सामान्यतः 10 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी खाद 200 ग्राम यूरिया 125 ग्राम डाई अमोनियम फास्फेट तथा 125 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाष प्रत्येक पेड को देना चाहिए। जस्ता की कमी के लिक्षण दिखाई देने पर 250-500 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति पौधा भूमि में देना चाहिए। आंवले के बगीचे में जनवरी-फरवरी तथा जून-जुलाई में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग किया जाता है।
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रोग तथा प्रबंधन:
तुड़ाई एवं उपज: अच्छी देखरेख एवं पोषण से पौधा पांच वर्षों में भरपूर उपज देने लगता है। माच-अप्रैल से वर्षा ऋतु में तेजी से बढ़ते हैं तथा नवम्बर-दिसम्बर में तोड़ने लायक हो जाते हैं। 10-12 वर्ष के पूर्ण विकसित पेड़ से लगभग 150-200 कि.ग्रा. उपज प्राप्त होती है।