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तोरई एक महत्वपूर्ण पौष्टिक सब्जी है। भारत में इसकी खेती व्यापक पैमाने पर की जाती है। तोरई के सूखे बीजों से तेल भी निकाला जाता है। फल में अधिक मात्रा में पानी होने के कारण इसके फल ठण्डे होते हैं। तोरई छोटे कस्बों से लेकर बड़े शहरों के बाजारों में इसकी मांग रहती है। कैल्शियम, लोहा , फॉस्फोरस और विटामिन-ए के गुणों से भरपूर नकदी फसल है।
तोरई की खेती के लिये अच्छी जल विकासी वाली सभी प्रकार की मृदाओं की जा सकती है। अच्छी उपज के लिये दोमट या बलुई दोमट मिट्टी सर्वोत्तम उपयुक्त होती है। इसका पी.एच. 6-7 खेती के लिये आदर्श मानी जाती है। इसकी खेती के लिये गर्म तथा आर्द्र जलवायु आवश्यक है। इसकी खेती ग्रीष्म व वर्षा (जायद तथा खरीफ) दोनों ऋतुओं में की जा सकती है। इसकी खेती के लिये 32-38 डिग्री सेल्सियस तापमान सर्वोत्तम है।
तुरई की बुवाई नाली विधि द्वारा की जाती है। इसमें सबसे पहले खेत की जुताई करके समतल किया जाता है फिर वर्टिकल में नाली बनाई जाती है। इसके बाद 2.5-3.0 मीटर की दूरी पर 45 सेमी. चैड़ी और 30-40 सेमी. गहरी नालियों में दोनों किनारों पर 50-60 से.मी. की दूरी पर बीज की बुवाई कर देना चाहिए। एक जगह पर कम से कम एक से दो बीज लगाना चाहिए तथा बीज जमने के बाद एक पौधा निकाल देते हैं। खेत में पलवार का प्रयोग करने से अच्छी उपज प्राप्त होती है। इससे मृदा तापमान बढ़ने व नमी संरक्षित होने के कारण बीजों का जमाव बेहतर होता है और खेत में खरपतवार नही उग पाते जिससे पैदावार अच्छी होती है।
तुरई के लिये ग्रीष्मकालीन फसल की बुवाई फरवरी-मार्च तथा वर्षा ऋतु में फसल की बुवाई जून-जुलाई में की जाती है। एक हेक्टेयर खेत में बुवाई के लिये 3-5 कि.ग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। तोरई की फसल 70-80 दिनों में फल देने के लिये तैयार हो जाती है।
खाद एवं उर्वरक: तुरई की अधिक पैदावार के लिये 20-25 टन सड़ी गोबर की खाद खेत में मिलाते हैं और 30-40 कि.ग्रा. नाइट्रोजन 25-30 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 25-30 कि.ग्रा. पोटाश की प्रति हेक्टेयर के हिसाब के डालें। नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय खेत में डालते हैं। शेष बची नाइट्रोजन की मात्रा बुवाई के 30-40 दिन बाद जड़ों के पास डालना चाहिए।
तुरई की सिंचाई: तुरई की वर्षाऋतु फसल के लिये सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। यदि खेत में नमी की कमी हो तो सिंचाई कर देनी चाहिए। ग्रीष्मकालीन फसल की उपज सिंचाई पर निर्भर करती है। गर्मियों में 4-5 दिनो के अन्तराल पर सिंचाई करना चाहिए।
तुड़ाई तथा भण्डारण: तुरई की तुड़ाई हमेशा मुलायम अवस्था में करना चाहिए देर से तुडाई करने पर कड़े रेशे बन जाते हैं। फलों की तुड़ाई 6-7 दिनांक के अंतराल पर करनी चाहिए। इस फसल की पूरी 8 तुड़ाई की जा सकती है। फलों को ताजा रखने के लिये ठण्डे तथा छायादार स्थानों पर रखना चाहिए तथा समय-समय पर पानी छिड़कते रहना चाहिए।
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