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सोयाबीन एक संभावित ख़रीफ़ तिलहन/दलहन फसल है सोयाबीन पोषक तत्वों से परिपूर्ण एवं पोषण की खान के रूप में जाना जाता है इसलिये इसे सुनहरे बीन की उपाधि दी गई है। सोयाबीन मटर, तिपतिया घास और द्विबीजपत्री फलियां हैं। प्रत्येक सोयाबीन का पौधा 60 से 80 फलियाँ पैदा करता है, प्रत्येक में तीन मटर के आकार की फलियाँ होती हैं। इसमें प्रोटीन के अन्य सभी उपलब्ध स्रोतों की तुलना में सबसे अधिक लगभग 40 प्रतिशत अच्छी गुणवत्ता की प्रोटीन एवं 20 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है। यदि हम सोयाबीन में पाये जाने वाले पोषक तत्वों व खनिज लवण व विटामिन्स का विश्लेषण करें तो प्रति 100 ग्राम सोयाबीन में उचित मात्रा पाई जाती है। सोयाबीन कठोर पौधे हैं और विभिन्न प्रकार की मिट्टी और मिट्टी की स्थितियों के लिए अच्छी तरह से अनुकूलित हैं। प्रोटीन की उपलब्धता को देखते हुये इसका हमारे दैनिक जीवन में पोषक आहार में विशेष योगदान है।
अधिकांश सोयाबीन मुख्य गीले मौसम में उगाए जाते हैं और ऊपरी भूमि में अच्छी तरह से फिट होते हैं मक्का, अरहर, तिल और मूंगफली के साथ संयुक्त फसल चक्र। सोयाबीन कम और बहुत उच्च तापमान के प्रति अपेक्षाकृत प्रतिरोधी है लेकिन विकास दर कम हो जाती है। फूल आने की अवधि के दौरान साल-दर-साल तापमान में उतार-चढ़ाव से मतभेद हो सकते हैं। सोयाबीन गर्म और नम जलवायु में अच्छी तरह उगता है। उत्तरी भारत में सोयाबीन की बुआई जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई के प्रथम पखवाड़े तक की जा सकती है। सोयाबीन के लिए इष्टतम तापमान 20-30 है। यदि पानी उपलब्ध हो तो सोयाबीन को उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय में पूरे वर्ष उगाया जा सकता है। सोयाबीन को अच्छी फसल के लिए एक सीजन में 400 से 500 मिमी पानी की आवश्यकता होती है। सोयाबीन थोड़े समय के लिए जल जमाव को सहन कर सकता है लेकिन मौसम खराब हो जाता है बरसात के मौसम में बीज एक गंभीर समस्या है।
सोयाबीन के बीज दिखने में अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन आम तौर पर गोल या अंडाकार होते हैं और उनमें क्रीम होती है। सोयाबीन में एक गांठदार जड़ प्रणाली होती है जिसमें शाखित मूसला जड़ और रेशेदार जड़ें दोनों होती हैं। इसे एक विशेष विकास अवस्था में तभी माना जाता है, जब खेत में 50% से अधिक पौधे हों उस अवस्था में हैं। जब नमी में बोया जाता है तो बीज लगभग तुरंत ही नमी को अवशोषित करना शुरू कर देता है। एक बार जब यह अपने वजन का 50% पानी में सोख लेता है तो अंकुरित होना शुरू हो जाता है। अंकुरण की शुरुआत होती है। यदि मिट्टी की सतह पर पपड़ी हो या कीड़े, कृंतक आदि हों तो भी उद्भव कम हो सकता है।
सोयाबीन खरीफ की फसल है और वर्तमान में भारत के तिलहन दृष्टिकोण में प्रमुख स्थान पर है। इस फसल की ऐतिहासिक विकास में किसी भी फसल के लिए भूमि और उत्पादन के लिए अद्वितीय इतिहास है। देश में सोयाबीन की सामान्य उत्पादकता पिछले दशक में 1.1 टन/हेक्टेयर पर रुकी हुई है, कुछ प्रगतिशील किसान देश में वायुप्रदूषण की चुनौती के बावजूद नकारात्मक जलवायु स्थितियों में भी 30 क्विंटल/हेक्टेयर तक की उपज दर्ज कर रहे हैं। विशेषकर मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान में सोयाबीन उत्पादन क्षेत्र वर्तमान में सूचीबद्ध गर्मी की लहरों के साथ सुखावृष्टि की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, जिससे इन राज्यों में उत्पाद स्तरों पर असर हुआ है। मध्य प्रदेश के सोयाबीन बाजार 24.73 टन है। राजस्थान में सोयाबीन के वार्षिक आगमन से किसानों और व्यापारियों के लिए बाजार में 326.5 टन की मात्रा ने कोटा को सोयाबीन वितरण में महत्वपूर्ण भूमिका दी है। महाराष्ट्र के सोयाबीन बाजार में 24.73 टन है।
सोयाबीन में उपस्थित प्रोटीन व आहरिक रेशे पाये जाने के कारण इससे रक्त में ग्लूकोज की मात्रा कम होती है जिससे खून की कमी होने से रोकता है तथा सोयाबीन में आयरन की मात्रा अधिक होने के कारण यह एनीमिया को भी नियन्त्रित करता है। सोयाबीन में पाई जाने वाली प्रोटीन से हमारे शरीर के रक्त में हानिकारक कोलेस्ट्रोल की मात्रा भी कम होती है। जिससे ह्र्दय रोग की संभावनाये कम होती है। सोयाबीन में पाये जाने वाले आइसोफ़्लोविन रसायन के कारण महिलाओं से सम्बन्धित रोग व स्तन कैंसर से बचाव करता है। ग्रामों तथा शहरों में सोयाबीन का प्रसंस्करण करते समय तथा उद्यमों का चयन करते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिये कि जो खाद्य पदार्थ तैयार करने की इकाई लगाई जा रही है उस पदार्थ में लोगों की रुचि या पसन्द अवश्य हो। जो पदार्थ उस क्षेत्र में पारम्परिक रूप से प्रचलन में हो तथा स्थानीय लोगों के खान पान /आहार का एक हिस्सा हो उनके आधार पर तथा स्थानीय मांग के अनुरूप सोयाबीन का उद्यम स्थापित करना लाभप्रद सिद्ध हो सकता है।
सोयाबीन उत्पादन में आने वाली बाधाएँ: