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लीची की बागवानी लीची को फलों की रानी कहा जाता है जिसके फल गुलाबी तथा लाल रंग के होते हैं जिसके फल अपने आप में आकर्षक रंग, स्वाद तथा गुणवत्ता के कारण भारत में ही नहीं विश्वभर में विशिष्ट स्थान है। लीची उत्पादन में चीन के बाद भारत का दूसरा स्थान है। हिमाचल प्रदेश में इसका कुल क्षेत्रफल 4060 हेक्टेयर और उत्पादन 3385 मीट्रिक टन है। भारत में लीची मुख्य रूप से उत्तरी बिहार, देहरादूर, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, पंजाब व हिमाचल के कुछ क्षेत्रों में उगाई जाती है। लीची बागों की उत्पादकता बढ़ने के साथा-साथ फलों की गुणवत्ता को भी अन्तराष्ट्रीय के अनुरूप बनाया जा सकता है। लीची का व्यवसायिक पौध कायिक विधि द्वारा तैयार किया जाता है। गूटी द्वारा पौधों को तैयार करने में सांकुर शाख कांट कर जड़ युक्त गूटी के साथ निकाल लिया जाता है जिससे पौधे का विकास होता है। पौधाशाला या नर्सरी में भी गूटी द्वारा पौधों का उचित देखभाल करने की आवष्यकता होती है जिससे अधिक से अधिक गूटी स्थापित होकर पौधों के रूप में विकसित हो सके। इससे पौधा शीघ्र विकसित होता है।
लीची की खेती का उत्पादन बीज, गूटी, कलम, शाखा, एवं ग्राफ्टिंग के द्वारा किया जाता है। चीन में लीची वर्षों से गूटी विधि के द्वारा ही तैयार किया जाता है। गूटी के अलावा लीची की एक तकनीक ग्राफ्टिंग है जो अब चीन, वियतनाम और दूसरे देशों में व्यवसायिक तौर पर अपनायी जा रही है। लीची का पौधा तैयार करने के लिये बाहर खुले बगीचे तथा आधुनिक तकनीकि द्वारा जैसे ग्रीन हाउस एग्रोशेडनेट, पाली हाउस, और मिस्ट गृह आदि स्थानों पर किया जा सकता है। गूटी के द्वारा तैयार किये गये पौधे 8-10 माह एवं ग्राफ्टिंग द्वारा 1-2 वर्ष में तैयार होते हैं।
पौधाशाला में पौधों का चयन एवं रोपण के लिये आवश्यक सबसे अच्छा क्लोन विधि जिसमें सारे गुण मौजूद हों का चयन करना चाहिए। मातृ पौधों का विशिष्ट गुण ही पौधशाला के भविष्य का निर्धारण करता है और आने वाले वर्षों में उत्पादन को बड़ाता है। मातृ पौधे अपनी किस्म के अनुसार होने चाहिए एवं अलग-अगल करके लगा होना चाहिए। किसी भी प्रकार का मिश्रण न हो और नये-नये किस्मों तथा रिक्त स्थान होना चाहिए। पौधे रोग एवं कीट मुक्त होना चाहिए।
एग्रो शेडनेट/मिस्ट गृह का आकार 12 से 8 वर्ग मीटर या इससे ज्यादा आका का होना चाहिए। ऊँचाई 3.8 मी. तथा दोनों तरफ की ऊँचाई 2.2 मी. हो और बीच मे जाने का रास्ता हो तथा क्यारियाँ बनी होनी चाहिए। शेट नेट के चारो ओर 90 सेन्टीमीटर ऊँचाई तक ईंट की दीवार हो जिससे अन्दर एवं बाहर से प्लासटर किया गया हो। पौधों की सुरक्षा के लिये घेराबन्दी बहुत ही आवश्यक है।
लीची के लिये गहरी दोमट मिट्टी में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। अम्लीय मिट्टी में माइकोराइजा का मिट्टी में प्रयोग करना चाहिए। फफूंद लगने पर जड़ों पर गांठे बनती है जो कि पौधों की शीघ्र व समुचित बढ़ोत्तरी के लिये आवश्यक होती है। यदि फफूंद उपलब्ध न हो तो पुराने पेड़ों की जड़ों के पास से मिट्टी लेकर तौलिये की मिट्टी के साथ मिला दें। लीची के पौधे के लिये नदी के किनारे वाली जलोढ़ मिट्टी अन्य पोषक तत्व और खनिज लवण का मिश्रण पौधे की वृद्धि के लिये उपयुक्त होते हैं। पौधो के उचित विकास के लिये कणों के सभी अवस्थाओं में पदार्थों को सही व उचित अनुपात में उपस्थित होना चाहिए। इसके पौधे सदाबहार प्रकृति के होते हैं जो सम-शीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में होते हैं। लीची का फल सदाबहार फल होता है।
लीची के पौधे का ठण्ड, कोहरे तथा हवा से बचाव: सूखी घास से पौधों को ढक कर सुरक्षित रखना चाहिए। छोटे पौधे को कोहरे, पाले और ठण्ड से बचाकर रखें। ध्यान रहे कि सदियों में दक्षिण पूर्व की ओर से उन पर धूप पड़ती रहे। सर्द हवा व गर्मी में गर्म हवा से पौधों का बचाव करना चाहिए। उत्तरी पश्चिमी दिशा की ओर बीजू आम के पेड़ शीशम, सिल्वर या ओक आदि के पौधों को पंक्तियों में लगाएं और उसके सामने दूसरी पंक्ति में अमरूद या शहतूत के पौधे लगायें।
खाद्य उर्वरक प्रबंधन: लीची पौधे के लिये खाद उर्वरक की मात्रा गोबर की खाद 10 कि.ग्रा., कैन 240 ग्रा. या यूरिया 120 ग्रा., या सिंगल सुपर फास्फेट 190 ग्रा. और म्यूरेट आफ पोटाश 50 ग्रा. प्रति पौधा एक वर्ष की आयु के पौधों के लिये आवश्यकता होती है। 11 वर्ष आयु के पौधों को गोबर की खाद 60 कि.ग्रा. कैन 2 किग्रा./800 ग्रा. या यूरिया 1 कि./400 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट 200 ग्रा. तथा म्यूरेट आफ पोटाश 600 ग्रा. प्रति पौधा की आवश्यकता होती है। 11 वर्ष से अधिक आयु के पौधों के लिलये खाद तथा उर्वरकों को इसी मात्रा में डालें। गोबर की खाद, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा दिसम्बर महीने के अन्त में प्रयोग करना चाहिए। नाइट्रोजन की मात्रा को दो बराबर भागों में बांटकर, एक मात्रा को फरवरी में डालें।
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फलों का फटना, तुड़ाई तथा नियंत्रण: लीची के फलों का फटना एक गम्भीर समस्या है। फलों के पकने के समय फल के छिलके पर भूरे रंग के धब्बे पड़ने लगते हैं और उस स्थान से फल फटना शुरू कर देते हैं। इससे बागवान की पैदावार घट जाती है और आमदनी भी कम हो जाती है। फल जब सख्त हो और उनमें रंग आ जाये तो फलों की तुड़ाई कर लेनी चाहिए। इसके नियंत्रण के लिये फल पकते समय सही वातावरण तथा भूमि में नमी को बनाने के लिये निरंतर सिंचाई करें। मई-जून के महीने में 3 दिन के अंतराल में सिंचाई करें। जब फल मटर के आकार का हो जाए तो एन.ए.ए. 2 ग्रा./100 लीटर पानी के साथ छिड़काव करें और दूसरा छिड़काव 10 दिन के अतंराल में करें।
प्रमुख कीट तथा नियंत्रण: